जितेन्द्र पूछते हैं, जब महिलायें ज्यादा अच्छा खाना बनाती है तो फिर होटलों वगैरह में पुरूषों को खाना बनाने के लिये क्यों रखा जाता है?
भैया जितेन्द्र यह सच है कि आमतौर पर खाना बनाने का काम महिलायें ही करती हैं पर महिलायें ज्यादा अच्छा खाना बनाती हैं मानना उसी तरह बचकाना है जितना यह मानना कि चूंकि सबसे अधिक आबादी चीन की है इसलिये चीनी लोग सबसे ज्यादा प्यार करते होंगे।
फुरसतिया अपने एक मित्र के यहां एक बार खाने पर गये। नयी-नयी शादी हुयी थी उसकी। खाना लगाया गया। फुरसतियाजी ने खाना देखते ही कहा, “भाभीजी, खाना बहुत अच्छा बना हैए” वे खुश होकर बोलीं, “भाई साहब, बिना खाये कैसे कह रहे हैं कि खाना अच्छा बना है?” फुरसतिया सपाट भाव से तुरंत बोले, “हो सकता है कि खाना खाने के बाद खाने की तारीफ न कर पाऊं, इसलिये पहले ही कह दिया।
वैसे होटलों में खाना बनाने के लिये पुरूषो को इसलिये रखा जाता है क्योंकि:
- महिलायें कूड़े-कचरे,बासी-कूसी सामानों को खाने में प्रयोग करने में हिचकती हैं
- अच्छा खाना बनाने वाली महिलाओं के पति कभी-कभी भावुक होकर क्रान्तिकारी भी बन जाते हैं। आखिरकार, गुलामी की मेवा खाने से बेहतर है आजादी की घास खाना। होटल के बेयरे यह सुख प्रदान करने में सहायक होते हैं।
- जो महिलायें अच्छा खाना नहीं बना पातीं उनके लिये ये पुरुष सहायक होते हैं। वे कह सकतीं हैं, “जिस कचरे के लिये इतना पैसा खर्च हुआ उससे बेहतर तो मैं घर में मुफ्त खिलाती हूं।
शैल का सवाल है, हिंदी में महिला चिट्ठाकारों की संख्या नगण्य क्यों है?
क्योंकि महिलाओं के पास समय बरबाद करने के बेहतर साधन मौजूद हैं।
असल में महिलाओं की सहज बुद्धि बहुत तेज होती है। कोई भी काम वे ठोंक बजाकर करती हैं। जो महिलायें लिखने में सक्षम हैं वे इस इंतजार में हैं कि हिंदी में लिखने वालों की संख्या कम से कम इतनी हो जाये ताकि यदि वे लिखें, “आज मौसम बहुत अच्छा है, फीलगुड हो रहा है”, तो ताबड़तोड़ कम से कम तीस वाह-वाह उनके ब्लॉग पर इतर-उतर छितरा जायें। जैसे-जैसे ब्लॉगर बढ़ेंगे महिला ब्लॉगरों के पदार्पण की संभावनायें बढ़ेंगी। वैसे पद्म्जा तथा प्रारंभ ब्लॉग की महिला ब्लॉगर के नये-पुराने चिट्ठों की अगर धुआंधार तारीफ की जाये तो शायद ये घबरा कर फिर लिखना शुरु कर देंगी। गौरतलब है कि बीच में प्रतिपोस्ट अधिक कमेंट के लालच में जीतेन्द्र ने इस बात पर विचार किया था कि वे काल्पनिक महिला चिट्ठाकार के नाम से लिखना शुरु कर दें। बाद में पता चला कि वो किसी संभावित महिला चिट्ठाकार की तारीफ में कमेंट लिखने में जुटे हैं ताकि तुरंत तारीफ कर सकें। सूचना है कि अभी तक 100 कमेंट तैयार कर चुके हैं। बहरहाल, इंतजार करें। भगवान के यहां देर है अंधेर नहीं।
जितेन्द्र पुनः पूछते हैं, कम्पयूटर स्त्रीलिंग है या पुर्लिंग?
भैया जितेन्द्र, बड़ा अहमक सवाल है। अब पूछा है तो जवाब भी सुनो, कम्प्यूटर चलता है, खराब होता है, बैठ जाता है। ये सारे मर्दाने लक्षण है। इसमें डाटा फीड होते हैं, सेव किये जाते हैं, यह उत्पादन का माध्यम है। ये सारे जनाने गुण हैं। तो फुरसतिया का यह मानना है कि दोनों गुण होने के कारण कम्पयूटर उभयलिंगी है। जवाब का और शुद्धिकरण किया जाय तो इसकी दिन प्रतिदिन बढ़ती महिमा के कारण कहना गलत न होगा कि कम्प्यूटर अर्द्धनारीश्वर है। अगला सवाल!
ईस्वामीजी का सवाल है, अभी मैं किसी ब्लॉगर को पेलवान कह लेता हूं, कोई किसी को भाई, बंधुवर, जी कहता है। जब कोई महिला ब्लॉगर आयेंगी तब उन्हें क्या कहा जायेगा?
स्वामी जी को फुरसतिया का परनाम। मेरा विश्वास करें, समय आने पर संबोधन अपने आप आ जायेगा। समय बिताने के लिए एक कथा सुनाता हूँ।
एक नवविवाहित पहलवान को मित्रों ने सलाह दी, पहली रात दुल्हन से ज़रा नर्मी से पेश आना, मुलायमियत से बोलना। पहलवान ने सलाह पर अमल किया। पलंग के बाइस चक्कर लगाकर फुसफुसाकर बोला, “क्यों? पंजा लड़ायेगी?” वैसे घिसा-पिटा ही सही “जी” बहुत दिन काम करेगा। आप अभ्यास करते रहें।
ईंद्र अवस्थी की विवेचना है, सुकुल,ये बताओ कि ब्लॉगरों में समूह चिट्ठा काहे प्रचलित हो रहा है?
होश में आओ! जैसे देश में एक पार्टी का शासन गये-जमाने की बात हो गई, वैसे ही अकेले चिट्ठा लिखना सबके बूते की बात नहीं रह गई। संगठन में शक्ति की बात के अलावा इसके और भी लाभ हैं, मसलन ब्लॉग का स्तर गिरने का आरोप दूसरों पर ठेला जा सकता है, न लिखने का अपराध बोध नहीं रहता और यह सांत्वना तो रहती है कि कोई और पढ़े न पढ़े, ब्लॉग को कम से कम लेखक मंडल के लोग तो पढ़ेंगे। इसीलिये लोग संयुक्त ब्लॉग की तरफ लपकते दिख रहे हैं। कुल मिलाकर समूह ब्लॉग दौपद्री की तरह होता है। वैसे अगर तुम भी साझे की खेती करते तो कुछ न कुछ पैदावार इस साल भी हो जाती अब तक ठेलुहा में।
जाते जाते जितेन्द्र का एक और सवाल, आपके चिट्ठे इतने लम्बे क्यों होते है?
फुरसतिया जब लिखते हैं तो लगभग हमेशा इस भ्रम का शिकार हो जाते हैं कि वे बहुत अच्छा लिखते हैं तथा लोगों को बहुत अच्छा लगता है उनका लेखन। फिर सोचते हैं कि लोगों को अच्छी लगने वाली चीज देने में कंजूसी क्यों की जाए भला। वैसे भी चिट्ठों के साइज का अभी मानकीकरण नहीं हुआ, इसलिये लंबे-छोटे की परिभाषा अस्पष्ट है। वैसे बहुत छोटी पोस्ट देखकर फुरसतिया को मुन्नाभाई एमबीबीएस का डायलाग याद आता है जिसमें हॉस्टल के कमरे को देखकर सर्किट कहता है, “भाई! ये कमरा तो शुरु होते ही खतम हो गया।” छोटी पोस्ट लिखने में संकोच का कारण शायद यह भी है कि फुरसतिया अपने ब्लॉग को बांस मानने में हिचकते हैं। बांस की कहानी संक्षेप में कुछ यूँ है:
एक ट्रक के पीछे बहुत से कुत्ते हांफते हुये भाग रहे थे। किसी ने एक कुत्ते से पूछा, “तुम कहां जा रहे हो?” कुत्ता हांफते हुये बोला, “मेरे आगे वाले से पूछो। जहां वह जा रहा है, वहीं मैं भी जा रहा हूं”। आगे वाले ने भी यही जवाब दिया। जब सबसे आगे वाले से पूछा गया तो वह हांफते हुये बोला, “यह तो नहीं पता हम कहां जा रहे हैं। बस इस ट्रक के पीछे लगे हैं। ट्रक में लदे हैं बांस। यह ट्रक जहां तक जायेगा हम वहां तक जायेंगे। जहां ट्रक रुकेगा, बांस उतारे जायेंगे, फिर गाड़े जायेंगे। जहां बांस गड़ेंगे हम वहीं मूत के भाग आयेंगे।”
फुरसतिया का अवतार ले कर हर महीने ऐसे ही रोचक सवालों के मज़ेदार जवाब देंगे अनूप शुक्ला। उनका अद्वितीय हिन्दी चिट्ठा “फुरसतिया” अगर आपने नहीं पढ़ा तो आज ही उसका रसस्वादन करें। आप अपने सवाल उन्हें anupkidak एट gmail डॉट कॉम पर सीधे भेज सकते हैं, विपत्र भेजते समय ध्यान दें कि subject में “पूछिये फुरसतिया से” लिखा हो। इस स्तंभ पर अपनी प्रतिक्रिया संपादक को भेजने का पता है patrikaa एट gmail डॉट कॉम
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