आ उठ, चल, बाहर जीवन है..
जीवन विषाद नहीं, सुख है
है मन का ये भ्रम जो दुख है
मधुर स्मृति से हो आलिंगन-बद्ध
राह में बैठ रोता मूरख है।
इक बिजली के कौंधने से ‘गर
डर कर काँप रहा बदन तर
छोड़ सहानुभूति स्वयं पर
आ उठ चल बाहर जीवन है।
चला पथरीली पगडंडी पर से
गुज़र रही कड़ी धूप सर से
डर न इस परीक्षा प्रहर से
छाँव लिये प्रतीक्षारत तरुवर है।
द्वार द्वार भटक रहा रे पागल
नाव छोटी तेरी, विराट सागर
मांगे जो पानी, मिले लवण जल
हाथ मे कुंड तेरे, मीठा जल है।
निराशा खडी है देख मुँह बाये
घेरने को तत्पर जो हो उपाय
हैं हर तरफ़ अन्धेरों के साये
मगर गुफ़ा के अन्तिम द्वार पर किरन है
आ उठ, चल, बाहर जीवन है।
आ उठ, चल, बाहर जीवन है…
आवारा वसंत
अबकी साल
वसंत यों ही आवारा घूमा
मेरी तरहा
कमरे से बगिया तक
बगिया से चौके में
चौके की खिड़की से
चमकीली नदिया तक
पटरी पटरी
दूर बहुत शिव की बटिया तक
मेरे ही संग ठोकर ठोकर रक्त रंगे ढाक के पावों
मौसम भी बंजारा घूमा
मेरी तरहा।
पटरी से पर्वत तक
पर्वत से मंदिर में
अष्टभुजा घाटी से
संतों की कुटिया तक
सीढ़ी पर
खुदे हुए नामों से मन के मिटे हुए नामों तक
धुआँ धुआँ आँखों आँखों में
हर एक पल रतनारा घूमा
मेरी तरहा।
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