पहली जनवरी 2005 को अनुभूति ने चार साल पूरे किए है और अभिव्यक्ति ने साढ़े चार साल। इस पूरे समय में इन पत्रिकाओं के कोई भी अंक विलंबित या निलंबित नहीं हुए। विश्वजाल की दुनिया में यह कोई लंबा समय नहीं लेकिन कंप्यूटर पर चैट कार्यक्रमों के ज़रिये साहित्य में उतरने और प्रतिष्ठित साहित्यकारों को खुद से जोड़ने की प्रक्रिया का एक खुशनुमा अनुभव जरूर है।
हिन्दी में शायद यह पहली पत्रिका होगी जहां संपादक एक देश में निदेशक दूसरे देश में और टाइपिस्ट तीसरे देश में हों। फिर भी सब एक दूसरे को देख सकते हों सुन सकते हों दिन में चार घंटे दो घंटे सुबह और दो घंटे शाम। वो भी तब जब एक की दुनिया में दिन हो और दूसरे की दुनिया में रात। हम आपस में अक्सर कहते हैं, “हम दिन रात काम करते हैं। इसी लिये तो हम दूसरों से बेहतर काम करते हैं”।
मजे की बात यह थी कि हम सब हिन्दी के दीवाने एक जगह मिल गए। सब हिन्दी के वियोग में तड़प रहे थे और अंग्रेजी के दमदार जालघरों को देख कर जल-भुन जाते थे। हमारी भाषा में ऐसा कुछ क्यों नहीं है! हम सब लोग आईसीकयू (ICQ) नामक चैट कार्यक्रम से जुड़े हुए थे। इसमें भाषावार सर्च करने की सुविधा है। तो मैंने हिन्दी बोलने वालों की खोज शुरु कर दी। उस समय पत्रिका बनाने जैसा कोई विचार नहीं था बस यह तमन्ना थी कि एक जैसे विचारों के कुछ लोग मिलें और विचारों का आदान प्रदान हो सके।
सर्च इंजनों में लोगों की तलाश एक रोचक काम था; अनजाने लोगों को आमंत्रित करना, बिना जाने हुए कि वे हैं कौन। भारत में काफी खोज की लेकिन उस समय यहां कम्प्यूटर का उपयोग इतना व्यापक नहीं था विशेष रुप से साहित्यकारों व हिन्दी प्रेमियों के बीच। विदेशों में कुछ लोग मिले जो समय निकाल कर अपनी भाषा और साहित्य के लिये कुछ करना चाहते थे। सबसे पहले लोगों में कैनेडा से अश्विन गांधी और कुवैत से विकास जोशी मिले। बाद में विकास जोशी की पत्नी दीपिका हमारे साथ आ मिलीं।
हम मिले तो धीरे-धीरे एक जालघर की योजना आकार लेने लगी। हमें कुछ खास चीज़ों की जरूरत थी- अर्थ, समय, तकनीक, कला और अनुभव। मिलकर जिम्मेदारी बांटने का निर्णय लिया। अर्थ की जिम्मेदारी प्रवीन सक्सेना ने ली तकनीक की अश्विन गांधी ने। अश्विन कैनेडा के ओकनगन विश्वविद्यालय में कंप्यूटर साइंस और वेब डिज़ायनिंग के प्रोफेसर हैं। कला पक्ष मैनें संभाला और टाइपिंग दीपिका जोशी ने। अपने-अपने अंर्तजाल के खर्च की जिम्मेदारी सबने अपने सर ली। टीम तैयार हो गयी थी। हर सदस्य अपने-अपने अनुभव को एक दूसरे के साथ जोड़ते हुए इस जालघर (वेबसाइट) के पूर्वायोजन में लग गया। जिसके पास जितना भी समय बचता वह आईसीकयू पर बिताता, अभिव्यक्ति को दिशा देते हुए। परियोजना बनाने व उसको दिशा निर्देश देने का काम अश्विन गांधी का था। हमारा सफर यूँ शुरु हुआ।
चैट विंडो को हमने बात खिड़की का हिंदी नाम दिया। लंबे-लंबे विचार विनिमय हुए और यह तय किया गया कि बिना किसी बड़े निवेश के, खाली समय का सदुपयोग करते हुए हम एक साधारण जालघर की रचना करेंगे। यह जालघर जियोसिटीज के मुफ्त आतिथ्य पर बनना शुरु हुआ। पहला अंक 15 अगस्त 2000 को प्रकाशित हुआ पर इसकी मास मेलिंग 21 तारीख को हो पाई। हमने अपने 100 परिचितों को इसे भेजा जिसमें से 65 ने इसकी यात्रा की।
15 सितंबर को इसका दूसरा अंक निकला जिसकी यात्रा के लिये 226 लोग आए और अगले महीने 338। हम धीरे धीरे आगे की ओर बढ़ रहे थे। तीन महीने बीतते-बीतते हमें लगा कि जिस दिशा में हम बढ़ रहे हैं उसके लिये एक बेहतर सुविधाओं वाला होस्ट चाहिये। जो सामग्री हम प्रकाशित करना चाहते थे उसकी भी कमी थी। अतः तय हुआ कि क्रिसमस की छुट्टियों में अश्विन गांधी अभिव्यक्ति के लिये नये घर (होस्ट) की तलाश करेंगे और मैं इसकी साज सज्जा – यानी साहित्यिक सामग्री के लिये भारत की यात्रा कर लूंगी।
इसी साल दिसंबर में मेरी मुलाकात बात खिड़की पर इलाहाबाद के प्रबुद्ध कालिया (जो साहित्यकार जोड़ी रविंद्र व ममता कालिया के सुपुत्र भी हैं) से हुई जिन्होंने बताया कि वे हिन्दी लिपि को वेब पर प्रदर्शित करने के लिये कुछ प्रयोग कर रहे हैं। हम चाहें तो अपनी पत्रिका में इसका इस्तेमाल कर सकते हैं। इस तरह हमारी पत्रिका डायनॉमिक फ़ॉन्ट पर आ गयी जिसका मतलब था कि पढ़ने वालों को फ़ॉन्ट डाउनलोड करने और फिर इंस्टाल करने के झंझट से मुक्ति मिल गयी।
इस बीच अभिव्यक्ति पर ई मेल द्वारा हमें बहुत सी कविताएँ मिल रही थीं। इन कविताओं के रचयिता साहित्यकार नहीं थे। कंप्यूटर इस्तेमाल करने वाले ऐसे प्रोफेशनल हिन्दी भाषी थे जिन्होंने साहित्य कभी स्कूल में पढ़ी नहीं। कविताएँ इतनी सुंदर और सहज थीं कि उन्हें वापस करने का मन नहीं होता था। वेब पर कवियों की प्रचुरता देख कर हमने निश्चय किया कि कविताओं की एक अलग पत्रिका बना दी जाए। इस तरह 1 जनवरी 2001 को अनुभूति का जन्म हुआ। दोनों पत्रिकाएँ आपस में लिंक कर दी गयीं।
15 जनवरी 2001 को जब नये घर में डायनॉमिक फ़ॉन्ट के साथ अभिव्यक्ति का नया अंक प्रकाशित हुआ तो विजिट करने वालों की संख्या 890 तक पहुंची। विश्व के कोने-कोने से हिंदी के विद्वानों प्रोफेसरों लेखकों विद्यार्थियों ने हमारे पास ईमेल भेजे। अपने लेखन से पत्रिका को समृद्ध किया और दोस्त की तरह इसे हाथों हाथ लिया। हम अनायास मजरुह सुल्तानपुरी की ये पंक्तियाँ साकार होते हुए देख रहे थे –
मैं अकेला ही चला था जानिबे मंजिल मगर
लोग साथ आते गए और कारवां बनता गया
अमरीका से कोलंबिया विश्वविद्यालय की सुषम बेदी ने अपने पाठ्यक्रम का अंग बना कर इसे सम्मान दिया तो लंदन के कथाकार तेजेन्द्र शर्मा ने अपनी पहली कहानी से ही इसे यूरोप के हिन्दी जगत में अच्छी तरह परिचित करवा दिया। आज विश्व के अनेक साहित्यकार इस पत्रिका से नियमित रुप से जुड़े हुए हैं।
एक साल की उम्र तक पहुँचते-पहुँचते हिन्दी के कुछ जाने माने नाम इस कारवां में आ मिले। दूसरा साल पूरा होने तक भारत, जापान, फ्रांस, यूके, नार्वे, कैनेडा, अमरीका, संयुक्त अरब अमीरात, मलेशिया और आस्ट्रेलिया के अनेक शौकिया और व्यावसायिक हिन्दी कवि व लेखक इस जालघर के निर्माण में सहयोग करते हुए हमारे साथ हैं।। यही नहीं नेपाल से नेपाल रेडियो के धीरेन्द्र प्रेमर्षि जो लोकप्रिय संगीतज्ञ भी हैं, ने पत्रिका देख कर हमसे संपर्क किया। नेपाली साहित्य के हिन्दी अनुवाद तथा उनकी मूल रुप से हिन्दी में लिखी गयी कविताओं को देख कर सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता कि विदेशियों में भी हिन्दी के लिये कितना प्रेम और आकर्षण है।
विश्वजाल पर शुभकामना और संदेशॠपृष्ठों की अद्भुत परंपरा है लेकिन हिन्दी में इस विषय पर बहुत कम काम हुआ है। इस अभाव की पूर्ति के लिये हमने अभिव्यक्ति में जावा आलेखों और हिन्दी कविताओं के साथ उपहार शीर्षक से कुछ पृष्ठ तैयार किये थे। इस साल न्यू जर्सी के उभरते हुए संगीतकार जय कृष्णन ने अभिव्यक्ति के इन पृष्ठों को तीसरा आयाम यानी आवाज, और संगीत देने का काम शुरु किया है। प्रवासी भारतीयों की कहानियों का एक संकलन ‘वतन से दूर’ तथा भारतीय लेखकों की कहानियों का संकलन ‘माटी की गंध’ नाम से इस साल अभिव्यक्ति पर प्रकाशित हुआ।
आज से आठ साल पहले विश्वजाल पर जब हमने हिन्दी को ढूंढने की कोशिश की वह नन्हीं सी बच्ची की तरह थी। विदेशी आवरण में लिपटी हुई अंग्रेजी की भीड़, में खोई हुई। हम कुछ मुठ्ठी भर लोग बार-बार उसे ढूंढने की कोशिश करते वह दिखती और गुम जाती। लगता था काम बनेगा नहीं। विदेशी ब्राउजरों में हिन्दी समर्थन नहीं थे। जालघर बनाया भी तो ठीक से पढ़े जाने में दिक्कतें थीं। पर देखिये दिल में जोश हो, भाषा में दम हो और बोलने वालों में सामर्थ्य तो उसका घर बनने में कितना वक्त लगता है। माईक्रोसॉफ्ट ऑफिस हिन्दी में आ चुका है और विंडोज़ का हिन्दी संस्करण जून में आने वाला है। लिनक्स का हिन्दी संस्करण तो आ ही चुका है। अब हिन्दी को विश्वजाल पर लोकप्रिय होते देर नहीं लगेगी।
भारत में इन पत्रिकाओं की पहचान धीरे-धीरे बननी शुरु हुई थी। स्वाभाविक रुप से नोएडा और बंगलौर के कंप्यूटर इंजीनियर हमारे पहले पाठक थे। लेकिन हमें विदेश में रहते हुए भारत में जिस साहित्य संयोजक की जरूरत थी वह साहित्य की नगरी इलाहाबाद में मिली। उत्तर प्रदेश की इस साहित्यिक राजधानी में तमाम असुविधाओं के बावजूद अभिव्यक्ति के निर्माण में जो सदा हमारे साथ रहे वे हैं बृजेशकुमार शुक्ला। हमें आस्ट्रेलिया से ईमेल मिली “कैलाश गौतम की कविता ‘गांव गया था गांव से भागा’ कहीं सुनी थी, बहुत पसंद आयी थी। आज वो कविता मेरे पास नहीं है। क्या आप उसे उपलब्ध करा सकते हैं” बृजेश को संदेश पहुंचाया गया। वे व्यक्तिगत तौर पर कैलाश गौतम से मिले और अगले दिन पाठक की प्रिय कविता प्रकाशित कर दी गयी। न जाने इस तरह कितनी रचानाओं को उन्होंने कवियों, लेखकों, पुस्तकालयों और पत्रिकाओं में से खोज कर हमारे पाठकों के लिये भेजा है। इस तरह हमें यह भी आभास हुआ कि आधुनिक पीढ़ी के बीच अज्ञेय, हरिवंशराय बच्चन, रामेश्वर शुक्ल अंचल और माहेश्वर तिवारी जैसे हिन्दी लेखक किस तरह लोकप्रिय हैं। भवानी प्रसाद मिश्र की ‘सतपुड़ा के जंगल’, सुभद्रा कुमारी चौहान की ‘झांसी की रानी’ और श्याम नारायण पांडेय की ‘हल्दी घाटी’ की फरमाइश के पत्र हमें आज भी मिलते रहते हैं।
हमने बहुत बड़े लक्ष्य नहीं बनाए थे। इस लिये किसी पल निराशा नहीं हुई। हर दिन नये अनुभवों से भरा हुआ था। हम व्यावसायिकता की दौड़, में नहीं पड़े। सीमित साधनों और व्यक्तिगत योग्यताओं के बेहतर इस्तेमाल पर अपना ध्यान रखा। सब कुछ शौक के साथ आकार लेता और बढ़ता रहा। किसी भी हिन्दी प्रयत्न की सफलता का अंदाजा तब होता है जब हिन्दी के जाने माने लोग और संस्थाएं उसको अपना समर्थन देते हैं। हिन्दी भवन नई दिल्ली की ओर से प्रख्यात साहित्यकार कमलेश्वर द्वारा इन पत्रिकाओं के लिये जब हमें सम्मानित किया गया तो हमें भी अपने काम के महत्व का आभास हुआ। कार्यक्रम में अशोक चक्रधर, गोविन्द व्यास, शेरजंग गर्ग तथा हिन्दी के क्षेत्र में जाने माने कंप्यूटर विशेषज्ञ डा विजय कुमार मल्होत्रा सहित दिल्ली के तमाम साहित्यकार व प्रकाशक उपस्थित थे। इसी प्रकार लंदन व बर्मिंघम की हिन्दी संस्थाओं द्वारा भी हमारे काम की भरपूर सराहना हुई है।
लोगों से मिलने वाले प्रशंसा पत्र हमारा उत्साह बनाए रखते हैं। प्रशंसापत्रों की कमी नहीं है लेकिन दुनिया की दौड़, में समय निकाल कर सहयोग करने वालों की आवश्यक्ता हमेशा बनी हुई है। पुरानी पत्रिकाओं के महत्वपूर्ण अंशों की मांग के पत्र आते ही रहते हैं। अभिव्यक्ति और अनुभूति के पुराने अंक हमने हटाए नहीं हैं। उनकी सामग्री को विषयानुसार अलग अलग स्तंभों में संकलित किया गया है। और इस रुप में वे केवल पत्रिकाएँ नहीं हैं, एक ऐसा पुस्तकालय है जिसमें हमने साहित्यिक रुचि के लोगों की प्रिय रचनाओं और उनके प्रयत्नों को सहेजा है। आज दोनों पत्रिकाओं को हर रोज कुल 400 से 600 तक लोग विजिट करते हैं। जहां तक हम पहुँचे हैं उसका संतोष है। और आगे बढ़ने की उमंग भी है लेकिन वेब की दुनिया में चार – साढ़े – चार साल कोई लम्बा अर्सा नहीं है। लोग इसे यूँ ही पसंद करते रहे, हिंदी के साहित्यकार और प्रेमी साथ निभाते रहे तो साहित्य का यह तीर्थ उनकी रोशनी से जगमगा उठेगा।
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