अतुल अरोरा
लंत मुद्दों की पीड़ा, गुदगुदाते पलों की ठिठौली और कभी-कभी खामखाँ के चिंतन मनन के संकलन – रोजनामचा तथा एक अप्रवासी भारतीय के अमेरिका प्रवास के रोचक संस्करणों के संकलन – लाइफ इन एच ओ वी लेन के लेखक अतुल अरोरा को उनके दोस्त व प्रशंसक सौ फीसदी कथाकार तथा अव्वल दर्जे का गप्पबाज मानते हैं।
७ मई, १९७० को कानपुर में जन्में और पले-बढ़े अतुल ने पी.एन कालेज कानपुर से बी.एस.सी. के उपरांत एच.बी.टी.आई. से संगणक प्रयोग में निष्णात (मास्टर आफ कंप्यूटर एप्लीकेशन) की उपाधि प्राप्त की। आरंभिक कुछ साल लखनऊ व कानपुर में काम करने के पश्चात इस शाकाहारी, यूपी वाले खत्री ने रुख किया अमेरिका का। संप्रति वे फिलाडेल्फिया में कार्यरत हैं, अपना समय अपनी जीवनसंगिनी, बच्चों और लेखन, फोटोग्राफी जैसे अपने शौकों में बाँटते हैं। लेखन के अलावा अतुल को शौक है सिनेमा (खास तौर पर पुरानी हिन्दी फिल्मों का) और भ्रमण का।
किस्सागोई में अतुल को महारत हासिल है। आमजीवन की घटनाओं से लिखने का मसाला उठाकर उसमें चिकाईबाजी की छौंक लगाकर लज़ीज लेखन के रूप में पेश करने का हुनर अतुल को बखूबी आता है। हिंदी चिट्ठाजगत के सबसे चर्चित लेख अगर टटोलें जायें तो उसमें अतुल के हाल आफ फेम के सारे लेख तो होंगे ही चाहे वे असली प्रवासी होने का , लिटमस टेस्ट हों, डॉ झटका हों, कुत्ते की पहचान का संकट हो, भैंस का दर्द हो या राजा का बाजा। तकनीकी तौर पर भी अतुल का हाथ तंग नहीं है। नई-नई खुराफातें करते रहते हैं। स्वाभाव से संस्कारी बालक के सारे गुण होने के बावजूद अतुल अपने जिस गुण का झंडा खुद फहराते रहते हैं वह है इनका गुस्सा। वास्तव में अतुल को लेखन और गुस्सा विरासत में मिला है। इनके पिताजी श्री नाथ अरोराजी मशहूर जनवादी लेखक हैं। संयोग कुछ ऐसा भी हुआ है कि अभिव्यक्ति के एक अंक में कथाकार पिता की कहानी (उपहार) तथा चिट्ठाकार पुत्र के संस्मरण साथ-साथ छपे।
अतुल गुस्से को मर्दों का गहना मानते हैं। तथा गाहे-बगाहे यह गहना धारण करते रहते हैं। विज्ञान की भाषा में कहा जाये तो अतुल की “विशिष्ट उष्मा” बहुत कम है। बहुत जल्द हत्थे से उखड़ते हैं पर उससे जल्द ही ठंडे हो जाते हैं। दोस्तों से लंबे समय तक नाराज न रह पाना इनकी बहुत बड़ी कमजोरी है। हिंदी ब्लॉग जगत की हर उल्लेखनीय गतिविधि से अतुल सक्रिय रूप से जुड़ रहे। इन उपलब्धियों में सारी कहा-सुनी, उठा-पटक भी शामिल हैं। नवीनतम हरकत रही प्रथम भारतीय चिट्ठाकार सम्मेलन, जिसे बताने की हड़बड़ी में अतुल अपनी सारी किस्सा गोई भूल गये। लिखने की बात पर उनकी कलम रुंध गई तथा काम संभाला रमणकौल ने – इधर-उधर कर के ।
स्वभाव से सकारात्मक रुख वाले अतुल मेहनती है तथा अपना लक्ष्य हासिल करने में मेहनत से जी नहीं चुराते वहीं दोस्तों पर भरोसा और प्यार इतना करते हैं कि गाहे-बगाहे अपने जिम्मे के काम दोस्तों को करने के लिये छोड़ देते हैं। अपने बारे में अफवाहें फैलाने में भी पीछे नहीं रहते अतुल, उनमें से एक यह है कि इनको हिंदी ठीक से नहीं आती। इस अफवाह का दंड भी इनके प्रशंसको ने पहले ही दे दिया था जब इन्हें हिंदी के लिये इंडीब्लॉगीज़ अवार्ड से नवाज़ा था।
आम हिंदुस्तानियों की तरह अतुल अपनी पत्नी को अपने से ज्यादा समझदार मानते हैं पर करते अपने मन की हैं (?)। अतुल तहज़ीब-पसंद इतने हैं कि चुहल भी बताकर करते हैं। तमाम आम प्रवासी की तरह देश की तमाम खामियां देखकर दुखी रहते हैं, मन बहुत बेचैन होता है मातृभूमि में आने का पर हालात पर बस नहीं। देश-दुनिया में बसे अतुल के प्रशंसक दोस्त इनको लगातार बेहतर लिखते देखना चाहते हैं। हम भी उनमें से हैं। तमाम शुभकामनाओं के साथ!
दीपा जोशी
दीपा जोशी ने अपना चिट्ठा-अल्पविराम, पिघलते एहसासों में प्रेम का इतिहास खोजते हुये शुरु किया:
इन पिघलते एहसासों ने रचा
तुम्हारे व मेरे प्रेम का इतिहास।
संगीत तथा गुनगुनाना शौक है दीपा जोशी का। अन्य रुचियाँ हैं- संगीत, कला, साहित्य तथा दर्शन। साहित्य में भी कविता में ज्यादा मन रमता है। ७ जुलाई, १९७० को दिल्ली में जन्मी, पली-बढ़ी, पढ़ी-लिखी दीपा जोशी ने ‘माँ’ शीर्षक से पहली कविता जब लिखी तब वे मात्र बारह वर्ष की थीं। फिलहाल दिल्ली में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में कार्यरत दीपा, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम-हिन्दी में सृजनात्मक लेखन में अध्ययनरत हैं।
कला व शिक्षा में स्नातक दीपा जोशी की रचनायें गृहशोभा, सरिता, उत्तरांचल पत्रिका व दैनिक जागरण के नजरिया स्तंभ में छपती रहीं हैं। वेब पत्रिकाओं अनुभूति, साहित्यकुंज,काव्यालय, निरंतर व पोयट्री डॉट काम पर कवितायें प्रकाशित हो चुकी हैं। दीपा की कविताओं में विविध रंग समाहित हैं, जिनमें हास्य है, उल्लास है तथा प्रेमानुभूति भी। प्रेमानुभूति के लिये दीपा को विलगाव, व्यथा का रास्ता ज्यादा रास आता लगता है, जैसे
खो गए ओ घन कहाँ तुम
हो कहाँ किस देश में पथरा गई कोमल धरा
चिर विरह की सेज में।
या फिर
मिलन की चाह में
जुदाई का
अपना है मजा
ये अलग बात है
सब माने इसे सजा।
या
वो कल की ही तो बात है
नहीं बिछड़ा था
जब तुम्हारा व मेरा साथ।
पर कभी मिलन की आस से मन उल्लास से भी भर जाता है:-
आयी होली आयी
बजने लगे
उमंग के साज
इन्द् धनुषीय रंगों से
रंग दो
पिया आज
हिंदी पखवाड़े में वाद-विवाद, भाषण तथा काव्यपाठ प्रतियोगिताओं में विभिन्न पुरस्कारों से सम्मानित खुशनुमा क्षणों को दीपा जोशी ने सुरुचिपूर्ण तरीके से सहेजा है। नियमित तथा सार्थक लेखन के लिये दीपा जोशी को शुभकामनायें।
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