कैसी हैं अँखियाँ रे तेरी
कैसी हैं अँखियाँ रे तेरी, काली, नीली या भूरी रे। पहाड़ी, देशी या हिरणी सी सीपीयों बीच मोती हों जैसे, सुख के सपने बसाये हूए विपदा अगर कोई आन पड़े तो बचाने के लिए बुरीं नजरें फिर, |
हँसती अँखियाँ तू खुब सबेरे प्यार की किरण छितराना रे। दीवारों की भी अँखिया होती मुझसे अगर कोई भूल हो जाए आँखे अगर थकीं होतीं हो तेरी निंदियाँ रानी की प्यारी आँखें |
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प्रेम पीयूष |
खोज सत्य की
सत्य की खोज मे
रोज मै निकलता हूँ
सत्य जब नही मिलता
झूठ को निगलता हूँ
जीवन एक भूख है
भूख है शरीर की
तो मस्तिष्क भी भूखा है
जो कुछ भी दिखता है
जो कुछ भी मिलता है
सबका सब झूठा है
सबका सब रूखा है
सत्य को पाने की
भूख को मिटाने की
जीने के लिये बस
दो पल चुराने को
इधर उधर भटकता हूँ
सत्य जब नही….
जीवन है मरीचिका
जीवन है विभीषक
जीवन एक क्रंदन है
जीवन एक मंथन है
मंथन तो विषकर है
जीवन एक विषधर है
विष की कुछ बूंदे ले
अमृत बनाने को
क्रंदन से पीड़ित को
कुछ पल हंसाने को
भरसक प्रयत्न करता हूँ
सत्य जब नही…..
उमेश शर्मा
पौधे
नीरव मन आँगन के कोने
सपनों का एक किलोल क्षेत्र।
हुए देख कर पौध कई
कौतुहल से विस्फारित नेत्र।
इन पौंधों में कुछ पौधे ज्यों
पनपें हो अनुराग सार से।
कुछ कुम्हलाए मुरझाए से
झुलस रहे हों यथा वियोग से।
कुछ पौधे थे झुके लज्जावश
ज्यों आलिंगन किया हो तुमने।
हवा के झोकों से कुछ चौंके
मानो स्पर्श किया हो तुमने।
कुछ पौधों की बोझिल आँखों में
मिलन की आशा, करें प्रतीक्षा।
कुछ खड़ककर होते कूपित
“छोड़ो, अब नहीं मिलन की इच्छा”।
इन पौधों की पृष्ठभूमि में
छुपी मेरी उत्कट अभिलाषा।
तुमसे प्रेम मेरा स्वप्न और
ये पौधें मेरे स्वप्न की भाषा।
देबाशीष चक्रवर्ती
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