वहशियों की मानिंद उन्होंने बरसों से छुपे गुबार को सार्वजनिक करना शुरु किया और सबसे पहले सामने आए एक “अलग” घर से मौलाना वहिदुद्दीन को बेहयाई से सड़क पर घसीट कर गाली गलौज शुरु कर दिया। उनके परिवार के सदस्य अपने मुखिया पर बरसते कहर से आर्तनाद कर उठे। अपने उस शिक्षक के छप्पर में आग लगाकर वे उसकी बेइज्जती करते रहे जिसे कल तक चचा कहकर सलाम करते थे और जिससे मशवरा लिया करते थे। गनीमत रही कि कुछ पास पड़ोस के लोगों की गैरत जागी और उन्होने इस घृणास्पद खेल पर रोक लगाकर काबू पाया। मौलाना इस सदमें से फिर कभी उबर न सके। बरसों पुराने सौहार्दपूर्ण संबंधों की श्वेत चादर पर ये कालिख के छीटें गाँव में इन दो समुदायों के बीच में एक गहरी खाई की तरह स्थायी मेहमान बन गए।
नए साल की शुरुआत पर गाँव से एक चीज गायब थी। यकीन और भरोसा किताबी लफ्ज भर रह गए थे। पर सईदन को अपनी मोहब्बत पर ऐतबार था, श्रवण अब तेरह वर्ष का हो चला था और बी पर बेहद आसक्त, इसी अजीब फेर में उसे उस बुरे वक्त की आहट भी सुनाई नही दी जो यकायक बिजली की कौंध की तरह सामने आया। एक दिन सहसा सईदन का मर्द लकड़ी काटते वक्त भरभरा कर ऊँचाई से गिर पड़ा और फिर दोबारा उठ न पाया। बेवा सईदन बेहद कमजोर और निढ़ाल पड़ गई। बेड़ियाँ लगा दी उसने अपने पाँव और जिह्वा पर। वर्षांत तक वह उम्र का बोझ सीने पर महसूस करने लगी थी, उसे लगने लगा कि सफर तय करते करते उसके कदम ऊब चुके हैं और सांसे फूल कर ये बता रही है कि सुस्ताने का पल आ चुका है।
साहू के परिवार से उसका नाता भले ही अब पूर्ववत न रहा हो पर श्रवण के प्रति स्नेह यूँ ही कायम रहा और चौदह वर्ष का लाड़ला लगभग सईदन से ही चिपटा रहता, अपने मन की बातें उसी से ही कर पाता था वह जिसे माँ जैसा ही चाहा था। गिरीश दो बरस पहले ही गाँव के डाकघर में नौकरी पा चुका था और पिता भी काम से निवृत्ति हासिल कर चुके थे। इधर कुछ दिनों में श्रवण की हालत अजीब सी थी, दिन भर जीवंत बालक शाम ढलते ढलते रुआंसा हो उठता, आँखें लाल हो जाती और तेज ज्वर आ जाता। आयु के असर के कुलांचे हवा हो जाते और बालक निढाल पड़ा रहता। हकीम साहब हैरान थे, क्या नुस्खा बनाते जब रोग का ठौर ठिकाना ही न मालूम पड़ सके। सईदन की फिक्रमंदी क्या बयान करूँ। अपने शरीर की लाचारियों के बावजूद वह मौका तलाश करती बीमार जिगर के टुकड़े के सिरहाने बैठने का। कई बार वह देर शाम तक श्रवण के पास बैठी शून्य में ताकती रहती और तब तक न हिलती जब तक साहूजी गला खंखार कर वक्त का एहसास न करवाते या सरला आकर श्रवण को झिड़कती, ” अब श्रवण, तू बच्चा है क्या जो हर वक्त तुझे सीने से चिपटाए कोई फिरता रहे। दिन बर खेल कूद फांद के समय तो बिल्कुल ठीक और रात कौन जाने क्या होवे है मूए को। अब रोजाना कौन लगा रहे इनकी तिमारदारी में।” यह सब सुनकर सईदन कड़वे मन से चली जाती, फिर सारी रात आँखों में ही काट देती।
गाँव की राई रत्ती से जानकारी रखने वाली लक्ष्मी की खुसर पुसर कई लोगों के मगज खराब कर रही थी। इधर सईदन की तबीयत भी कई दिनों से नासाज रहती, खुद ही काढ़ा बनाकर जी रहती वह, पर हर पल लगता की अब बुलावा आ गया। एक दिन लक्ष्मी ने बी को एक पोटली साहू के घर ले जाते देखा। फिर क्या था, शंका और कौतूहल से उसका पेट फूलने लगा। उस शाम श्रवण की सेहत बेहद बिगड़ गई। तेज बुखार से जलने लगा था बालक,पल पल उसे ऐंठन होने लगती, मुँह से झाग निकलने लगता। पिता तो चिंता से बदहवास होने लगे थे। हकीम पुड़िया देकर पास ही बैठा रहा। लक्ष्मी को लोहा गरम जान पड़ा, दौड़ कर आ उसने सभी को नमक मिर्च लगाकर बताया कि कैसे सईदन सुबह पोटली में कुछ टोना लाई थी और कैसे मंतर फूंक कर उसने श्रवण पर टोटका किया है। सुनकर सरला और लता तो कोहराम मचाने लगीं, उनका संताप अब सुरों के साथ बोली का रूप धरने लगा, “अरी कमीनी, हमने तेरा क्या बिगाड़ा था? तू हमारे ही कुलदीपक पर जादू कर बैठी। डायन अपने बेटे को तो कोख में ही खा गई, मूसल जनने की तेरी औकात न थी तो मेरे बेटे को फुसला लिया। अरे मेरे लाडले का क्या हाल किया देखो इसने देखो। मुरझाए फूल सा हो गया मेरा लाल। अरे भगवान! कौन हटाएगा इस अभागन के काले साए को….”।
अब तक गिरीश का पारा सातवें आसमान पर चढ़ चुका था, छाती पीटती बीवी का प्रलाप सुन वह दाँत भींचकर लगभग दौड़ पड़ा पड़ोस की ओर। सईदन को देखते ही वह ज्वालामुखी सा फट पड़ा। झपटकर सईदन का कंधा झिंझोड़कर चीख उठा वह, “बोल क्यों किया टोना तूने मेरे बेटे पर? क्या इसलिए तूने जगह बनाई इस चाहरदिवारी में? सुन ले, अगर श्रवण को कुछ हुआ न तो तेरी बोटी बोटी नोंच लूंगा मैं। पराई जात को गले लगाने का यह फल है। बता क्या उतार है तेरे टोने का। बता नहीं तो तेरी खाल अभी खींच लेता हूँ मैं!” सईदन तो सकते में आ गई, अपमान और खीज से वह फफक पड़ी, बीमारी और झटके से कमजोर उसकी जबान लड़खड़ाने लगी,”मैं करूँगी टोटका सरवन पर? जिसे गोद में खिलाया उसकी जान लूँगी मैं? अरे, मेरा तो वह बेटा है, उसकी बुराई सोचूँगी मैं? या अल्लाह मैं यह क्या सुन रही हूँ।” इससे पहले कि वह और कुछ कहती, सईदन के मना करने से क्रुद्ध सरला ने आगबबूला हो आव देखा न ताव, बगल में पड़ा चिमटा उठा कर दे मारा सईदन के माथे पर। खून की एक लकीर फूट पड़ी और सईदन कराह कर कटे पेड़ सी गिर पड़ी। बेहोश हो कर पड़ी रही बेचारी।
“यह क्या कर डाला!”, कहकर गिरीश की आँखे फैल गई। सारी भीड़ ने दाँतो तले उँगली दबा ली। इतने में लता दौड़ कर बाहर आई, “यह देखो भैया, सईदन की पोटली श्रवण के तकिए के नीचे धरी थी।” गिरीश ने लपककर पोटली खोलनी चाही तो हड़बड़ाहट में सारा सामान नीचे गिर गया। खनखनाहट से वहाँ मौजूद सभी का ध्यान बिखरे सामान पर गया। चमकती चुड़ियाँ, चाँदी के पाजेब, लड़दार करगता, करनफूल, मण्डलाकार हँसली। हैरत से मुँह बनाए गिरीश किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो कुछ देर खड़ा रहा। भीड़ में कुछ तेज फुसफुसाहट शुरू हुई। अचानक गिरीश कुछ सोचकर दुबारा कमरे में गया। एक गिलास में पानी लाकर उसने झुककर सईदन के चेहरे पर छींटे मारे। बड़ी देर बाद जब असहाय स्त्री ने आँखे खोली तो एक अस्पष्ट आकृति छलछलाती आँखो के साथ सवाल कर रही थी,” ये सब क्या है बी,ये गहने?”
इतने कष्ट के बावजूद सईदन के होंठ हिकारत से मुस्करा उठे, “भैया, मैं टोटका नही करती। अपने सरवन पर तो मैं अपना सब कुछ न्यौछावर कर दूँ। कुछ दिन बीमार रही तो लगा कि अब आखिरी वक्त नजदीक आ चला है, कब गुजर जाऊँ कोई भरोसा न था। सच कहूँ तो जीने की आरजू भी नही रही थी। ये मेरे अम्मा के गहने थे जो मेरी निकाह पर मिले थे मुझे। बड़ी तमन्ना थी कि सरवन की जोरू को अपने हाथों से यह गहने पहनाऊँगी। और है ही कौन मेरा अपना? तुम्हीं बोलो भैया, जो तुम्हें या आपा को यह गहने देती तो क्या तुम लेते, नही न! इसीलिए मैने कल सोचा कि चुपके से मेरे लाडले के सिरहाने यह पोटली रख आऊँ, लगा था कि जान कल ही निकल जाएगी पर यह बेहया आज तक यूँ जलील होने को टिकी रही….” रोती रही सईदन और घाव रिसता रहा। गिरीश, सरला, लता भी पश्चाताव के आँसू बहाते रहे। कुछ पल बाद सईदन ने आस पास नजर डाली, शर्म से गड़ गई वह। उठ के जाने का उपक्रम करते ही फिर गिर पड़ी अधेड़ काया और ढेर हो गई। वहीं मौजूद हकीम ने दौड़कर नब्ज टटोली और मायूस होकर गिरीश की ओर देखा।
अगली सुबह भला चंगा सरवन अपनी सईदन बी की खबर लेने लगा पर किसी ने ठीक जवाब न दिया। जनाजे पर सहानूभूती के रेले में बहकर कई शुमार हुए। मैं सोच में डूबा रहा। एकबारगी लगा कि काश सईदन को मैने अपना स्नेह जात के दायरे में सहेज कर रकने की सलाह दी होती और काश श्रवण को धर्म की जाँच करके ममता की छाँव में जाने को कहा होता। इंसानी रिश्तों की संकीर्णता के इस पाठ को काश श्रवण बड़ा होकर भी याद रखकर कुछ सबक ले। मैं खुद ही उसे यकीन दिलाता की जज़्बात दायरों से बड़े होते हैं पर चौपाल में लगे नीम के बरसों पुराने पेड़ कि मूक सलाह भला कौन समझेगा! दीर्घनिःश्वास लेकर मैं फिर सोच में डूबने उतरने लगा हूँ। (समाप्त)
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