आप चिपको आंदोलन के प्रणेता रहे हैं। कश्मीर से कोहिमा तक वन को बचाने के लिए आपने गंभीर आंदोलन चलाए हैं। अपनी इस यात्रा के बारे में कुछ प्रकाश डालेंगे?
मनुष्य प्रकृति को अपनी निजी संपत्ति मानने की भूल कर बैठा है तथा इसके अंधाधुंध दोहन की वजह से संसार में अनेक विसंगतियाँ और समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं। प्रकृति के असंतुलन से मौसम का चक्र ही बदल गया है नतीजतन दुनिया के अनेक हिस्सों में प्राकृतिक प्रकोप बढ़ चला है। प्रकृति को बचाने के लिए प्रकृति को प्रकृति के पास वापस रहने देने के लिए ही चिपको आंदोलन की सर्जना की गई थी। संतोष की बात यह है कि देश में ही नहीं तमाम विश्व में इस मामले में जागृति आई है। वृक्षों को काटने के बजाए वृक्षों की खेती करना जरूरी है यह बात बड़े पैमाने पर महसूस की जा रही है और इस क्षेत्र में प्रयास भी किए जा रहे हैं।
टिहरी बाँध के निर्माण को रोकने के लिए आपका दो दशकों का लंबा, गहन आंदोलन भी फलीभूत नहीं हो पाया। आपका यह आंदोलन असफल क्यों हो गया?
ऐसा मानना तो अनुचित होगा। जन जागृति तो आई है कि बड़े बाँध नहीं बनेंगे। बड़े बाँध स्थाई समस्याओं के अस्थाई हल हैं। नदी का पानी हमेशा प्रवाहमान रहता है। बाँध कुछ समय बाद गाद से भर जाते हैं और मर जाते हैं। दूसरी बात यह है कि बाँध जिंदा जल को मुर्दा कर देते हैं। पानी के स्वभाव पर अध्ययन से यह बात स्पष्ट हुई है कि रुके हुए जल में मछलियों व अन्य जीव जंतुओं, जिनका जीवन प्रवाहमान पानी के अंदर होता है उनके स्वभाव में विपरीत व उलटे परिवर्तन हुए हैं। बड़े बाँध एक दिन अंततः सर्वनाश का ही कारण बनेंगे।
परंतु इस बात से कैसे इंकार किया जा सकता है कि बड़े बांधों के निर्माण के पीछे नदियों के जल की विस्तृत क्षेत्र में वितरण की भावना होती है तथा पर्यावरण अनुकूल जल विद्युत निर्माण का उद्देश्य होता है?
यह भी एक दुष्प्रचार है। भारत जैसे जनसंख्या बहुल देश में जहाँ प्राकृतिक संसाधन जैसे कि वर्षा का जल व सौर ऊर्जा बहुलता से मिलते हैं इनका इस्तेमाल चहुँ ओर जल तथा विद्युत उत्पादन-वितरण के लिए बखूबी किया जा सकता है। भारत में प्रायः हर क्षेत्र में वर्षा इतनी होती है कि हर गांव में हर कस्बे – मुहल्ले में तालाब बना कर वर्षा का जल रोका जा सकता है और इससे पानी की समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है। इसी तरह सौर ऊर्जा का इस्तेमाल बिजली उत्पादन में किया जा सकता है।
एक मजेदार वाकया आपको सुनाता हूँ। एक बार मैं नार्वे गया। वहाँ जब मैं पहुँचा तो देखा कि सभी घरों में ताले लगे हैं, और शहर में कोई नहीं है। मुझे लगा कि क्या मैं गलत समय पर आ गया या हूँ। परंतु मुझे बताया गया कि यहाँ धूप बहुत कम खिलती है लिहाजा लोग बाग़ समुद्र किनारे धूप स्नान के लिए गए हुए हैं। भारत में बारिश के चार महीनों को छोड़ दें तो यहाँ धूप का अकाल कभी नहीं रहता। यह प्राकृतिक, अक्षय ऊर्जा है। पर्यावरण अनुकूल ऊर्जा है। इसका इस्तेमाल क्यों नहीं किया जाता। आप देखेंगे कि जब अंधाधुंध दोहन के कारण पृथ्वी के संसाधन समाप्त हो जाएंगे तो अंततः यही अक्षय ऊर्जा ही काम आएगी। मनुष्य को अभी से चेत जाना चाहिए।
आप विनोबा जी के ग्राम स्वराज आंदोलन से भी जुड़े रहे हैं। आज की पीढ़ी यह सब भूल चुकी है। वर्तमान पीढ़ी के लिए ऐसे आंदोलनों की सार्थकता आप महसूस करते हैं?
विनोबा जी के ग्राम स्वराज योजना में भी शाश्वत सत्य का अनुष्ठान किया गया है। ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत की अवधारणा जो चली आ रही है उसे बदलना होगा और देश के प्रत्येक नागरिक को स्व-समर्थित बनाना होगा। यही ग्राम स्वराज का उद्देश्य था और इसे अपनाए बिना भारत का उद्धार नहीं होगा।
आज हम भारत की मिट्टी के उपजाऊपन को निर्यात कर रहे हैं। खेतों की मिट्टी अंधाधुंध रासायनिक खादों के उपयोग के कारण नशेबाज हो गई है। खेत मरूस्थल बनते जा रहे हैं। खेतों में इंडस्ट्री की तरह उत्पादन लिया जा रहा है। अंततः धरती बांझ हो जाएगी। हमें इससे बचना है तो वृक्षों की खेती शुरू करनी होगी। धरती की गोद में वृक्ष सदाबहार रहेंगे तो उनसे प्राप्त वनोपजों से पर्यावरण स्वच्छ तो रहेगा ही, सर्वत्र प्रचुरता में पानी, भोजन व वस्त्र भी सुलभ हो सकेंगे।
आपने बहुत भ्रमण किया है और अपने विचारों को तमाम क्षेत्रों में रखा है। लोगों में आपके विचारों के प्रति किस तरह की भावना जाग्रत हुई है, क्या आपके इन विचारों को मान्यता मिली है?
चिपको आंदोलन उत्तर भारत में हिमालय से शुरू हुआ और दक्षिण में कर्नाटक तक पहुँच गया। वहाँ इसका नाम पिक्क हो गया है। तो इन विचारों को मान्यता तो चहुँ ओर मिली ही है।
बहुत समय से देश की कुछ बड़ी नदियों को आपस में जोड़ने के बारे में बातें की जा रही हैं – गंगा-कावेरी जैसी योजना के बारे में आपके क्या विचार हैं?
यह भी प्रकृति के साथ खिलवाड़ है। देश की नदियों को जोड़ना मूर्खतापूर्ण कदम होगा। लाभ के बजाए हानि ही ज्यादा होगी। नदियों का जलस्तर घटेगा व नदी अपनी स्वयं की शुद्ध करने की शक्ति खो देगी। एक नदी प्रदूषित होने पर वह सारी नदियों को प्रदूषित करेगी। इसे रोकने के लिए, लोकशक्ति जागृत करने के लिए हिमालय से कन्याकुमारी तक पदयात्राएँ करने की आवश्यकता है।
बड़े बाँध और पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर राज्य व केंद्र की सरकारों की भूमिका पर अकसर सवाल उठाए जाते रहे हैं। आप इन्हें कहाँ तक उचित समझते हैं?
यह तो सर्वविदित है कि राज्य अपने अल्पकालिक लाभ के लिए कार्य करते हैं। परंतु खुशी की बात यह है कि हमारी न्यायपालिका बहुत मजबूत है, काफी गंभीर है और सत्य की अवधारणा पर कार्य करती है। बहुत से मामलों में न्यायपालिका ने सरकार को इन संवेदनशील मुद्दों पर अपना रूख बदलने को मजबूर भी किया है।
आपके पश्चात इस आंदोलन की गति क्या होगी?
यह कतई जरूरी नहीं है कि आंदोलन, चलाने वाले के जीवनकाल में सफल हो जाए। मनुष्य तो नाशवान है। परंतु सत्य हमेशा शाश्वत रहता है। इटरनल ट्रुथ, शाश्वत सत्य तो अमर रहेगा।
उत्तरांचल में आपने व आपकी पत्नी ने नशाबंदी के लिए भी बहुत कार्य किए। आज जब आधुनिक समाज में मद्यपान को सामाजिक उन्नति का प्रतीक समझा जाने लगा है तब नशाबंदी की अवधारणा कहाँ तक उचित प्रतीत होती है?
यह सामाजिक उन्नति तो नहीं, सामाजिक अवनति है। कोई भी नशा उन्नति की ओर नहीं ले जा सकता यह तो तय है। हमारे प्रयासों से हिमाचल के तमाम जिलों में जागरूकता फैली है। चिपको आंदोलन के कारण वनों की कटाई पूर्णतः बन्द है। पाँच जिलों में संपूर्ण मद्यनिषेध अपनाया गया है। ये बातें कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।
मैं फिर कहूंगा कि सत्य हमेशा जिन्दा रहता है। मैं इसे अपना सौभाग्य मानता हूँ कि आज मैं जिंदा हूँ। वन माफिया और शराब माफिया ने मेरे जीवन को समाप्त करने के बहुत से कुचक्र चले। एक बार मुझे गंगा में डुबो दिया गया था। इस तरह की समस्याएँ हर आंदोलनकारी के जीवन में तो आती ही हैं। परंतु हार अंततः असत्य की ही होती है।
निरंतर के पाठकों को कोई संदेश देना चाहेंगे?
हमारे समय स्वच्छ जल, पवित्र धरती और निर्मल आकाश (वायु) था। उपभोक्तावादी संस्कृति ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा है और सर्वनाश फैलाया है। आज सभी प्रदूषण के शिकार हैं। समस्या गंभीर होती जा रही है। हमें लड़कर नया जमाना लाना होगा, जो वही, पुराना – स्वच्छ, पवित्र और निर्मल था। युद्ध तो छेड़ना ही होगा। और यही उपयुक्त समय है।
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