नोबल पुरस्कार विजयी एक अर्थशास्त्री के एक कथन कि भावानुवाद करें तो, “एक बार अगर आप भारतीय शिक्षा की बात करें तो आप कुछ और सोच ही नहीं सकते। यह विषय आप में विस्मय, क्रोध, नैराश्य, आशा और गहरा दुःख भर देता है।
भारत में पाठशालाओं की संख्या विस्मयकारी है, अनुमानतः दस लाख से ज्यादा, पर यह बेहद निराशाजनक बात है कि 90 प्रतिशत से भी ज्यादा भारतीय बच्चे 12वीं कक्षा तक पहुँचते पहुँचते स्कूल छोड़ देते हैं। जो बच्चे कॉलेज तक जा पाते हैं उनमें से भी कुछ ही बच्चे स्नातक बन पाते हैं।
हर साल कॉलेजों से स्नातक बननें वालों की 350000 की संख्या प्रभावोत्पादक है फिर भी हमारे महाविद्यालयों की गुणवत्ता इतनी निराशाजनक है कि हमारे स्नातकों में से महज 15 प्रतिशत ही नौकरी के लायक होते हैं। दुखद बात है कि जी.डी.पी का तकरीबन 8 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करने के उपरांत भी, यह तंत्र देश की अधिकांश जनता के लिये पूर्णतः असफल साबित हुआ है और फिर भी हम हमारे बेहद सफल एन.आर.आई का ज़िक्र सुनते हैं जो आई.आई.टी जैसे हमारे सर्वोत्कृष्ट संस्थानों के पूर्वस्नातक रहें। जाहिर तौर पर इस तंत्र ने मुट्ठी भर लोगों के लिये जितना शानदार काम किया है, देश के बहुसंख्य लोगों के लिये यह उतना ही त्रासिक सिद्ध हुआ है।
इस तंत्र की असफलता की जड़ में जाने के लिये हमें शुरुवात से शुरु करना होगा। प्राथमिक शिक्षा की उपेक्षा का आरंभ इसकी व्यवस्था में सरकार के सम्मिल्लित होने से हो जाता है। सार्विक प्राथमिक शिक्षा जैसी महत्त्वपूर्ण गतिविधि को भ्रष्ट और अयोग्य नौकरशाहों के भरोसे छोड़ा नहीं जा सकता। आज की तारीख में निजी क्षेत्र को शिक्षा से मुनाफ़ा कमाने के लिये इजाज़त नहीं है। केवल मुनाफ़े का बारे में न सोचने वाली ट्रस्ट को शिक्षा क्षेत्र के् प्रवेश की अनुमती है। शिक्षा पर नियंत्रण हेतु काफी कड़े कानून और नियम हैं। अगर आप शिक्षा पर पैसे लगाते हैं तो उससे कमाई के बारे में भूल जायें। इन नो प्रॉफ़िट संस्थानों को भ्रष्टाचार से भी परेशानी होती है। अगर वास्तव में एक खरे उत्पाद का दक्षता पूर्ण प्रदाय करना है तो प्रतिस्पर्धा और निजी क्षेत्र कि भागीदारी ही एकमात्र विकल्प है, वह भी केवल प्राथमिक शिक्षा ही नही वरन शिक्षा के हर स्तर पर।
यह सच है कि निजी क्षेत्र उन्हीं सेग्मेंट्स को सेवा प्रदत्त करेगा जिनमें वाजिब कीमत देने कि कुव्वत है। यहाँ पर सरकार की भूमिका होनी चाहिये कि वह ऐसे लोगों को आर्थिक मदद दे जो यह खर्च उठाने का सामर्थ्य नहीं रखते। यहाँ “प्रतिस्पर्धा” महत्त्वपूर्ण शब्द है। निजी क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा को केवल इजाजत ही नहीं बल्कि बढ़ावा मिलना चाहिए। केवल प्रतियोगिता के बल पर ही हर किसी के लिये शिक्षा सुलभ करने का महती कार्य पूर्ण करना संभव है।
निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की कार्य शैली में कई असमानतायें हैं। निजी क्षेत्र के संस्थानों पर बजट का कड़ा दबाव रहता है और उन्हें मुनाफा भी कमाना होता है। और उन्हें मुनाफा भी तभी हो सकता जब उनके द्वारा प्रदत्त सेवा से फायदे लागत से ज्यादा हों। निजी क्षेत्र की प्रतिस्पर्धा से यह मुनाफा भी मामूली नही रहता।
प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में बचे रहने के लिये निजी क्षेत्र “इन्नोवेशन” यानी अभिनव परिवर्तन लाने को विवश हो जाती है। शिक्षा के क्षेत्र में अभिनव परिवर्तन की सख़्त दरकार हैं और जब तक सरकार इसमें शामिल है यह तत्व नदारद ही रहेगा। आमतौर पर मोनोपोली यानी एकाधिकार संस्थानों के पास अभिनव परिवर्तन करने का कोई कारण नही होता और यह सैधान्तिक रूप से असंभव है कि ऐसे संस्थान इनोवेट करें। जब तक शिक्षा पर सरकार का एकाधिकार बरकरार रहेगा, अभिनव परिवर्तन की उम्मीद रखना बेमानी होगा।
तो पॉलिसी का नुस्ख़ा बड़ा सीधा सा है। पहलाः शिक्षा क्षेत्र को स्वाधीन करें और निजी क्षेत्र की भागीदारी और स्पर्धा को बढावा मिले। दूसराः सार्विक शिक्षा हेतु सेकेन्डरी स्कूल स्तर तक जरूरतमन्द छात्रों को आर्थिक सहायता दी जाय। तीसराः उच्च शिक्षा की पात्रता रखने वाले छात्रों को ऋण सहायता दी जाय और चौथाः जो उच्च शिक्षा की पात्रता नहीं रखते उन्हें व्यावसायिक शिक्षा के विकल्प मुहैया हों। निजीकरण के मामले में अमरीका काफी सफल रहा, वहाँ के सबसे लोकप्रिय विश्वविद्यालय निजी क्षेत्र से हैं। स्टैनफॉर्ड जैसे ये संस्थान पूर्णतः पेशेवर तरीके से चलाये जाते हैं और मुनाफ़ा भी कमाते हैं।
शिक्षा क्षेत्र में सबसे उचित अभिनव परिवर्तन होगा इंफॉर्मेशन एंड कम्यूनिकेशन टेक्नोलॉजी टूल्स (आई.सी.टी) का यानी सूचना तथा कम्युनिकेशन तकनीकी टूल्स का प्रयोग। आई.सी.टी में हाल के दिनों में अपूर्व प्रगति हुई हैं। शिक्षा को किसी भी और क्षेत्र की बजाय आई.सी.टी से ज्यादा फायदा मिल सकता है क्योंकि इससे गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा की लागत में कमी लाई जा सकती है। शिक्षा में आई.सी.टी का प्रयोग उतना ही परिवर्तनकारी होगा जितना की शिक्षा के पहले आंदोलन में पुस्तकों की खोज रही। आई.सी.टी OLTP बच्चों को लेपटॉप से महंगे खिलौने देने के मुकाबले ज्यादा विस्तारित तकनीक और औजारों का समुच्य है।
पुस्तकों की खोज से शिक्षा के खर्च में कमी आई क्योंकि ये समय और दूरी के नियमों को लांघकर जानकारी दे पाते थे और इनको पुर्नउत्पादन करना भी सस्ता पड़ता था। एक ऐसे तंत्र कि तुलना में जहाँ इंसानों को ज्ञान के प्रसार में सीधे शामिल होना पड़ता था, किताब एक अभिनव परिवर्तन था। अब समय आ गया है कि पुस्तकों को अधिक सस्ते विकल्पों जैसे डिजिटल प्रारूप से बदला जाये। डिजिटल जानकारी की पुस्तकों के मुकाबले अनेकों फायदों में से एक यह है कि ज्ञान महज़ टेक्सटुअल यानि न शाब्दिक न होने से पठन सामग्री और भी समृद्ध हो सकती हैं। अब आडियो, विडियो, टेक्सट और ग्राफिक्स के रूप में हाईपरलिंक्ड मसौदे का निर्माण संभव है।
यह अंदाज़ा लगाना मुशकिल नही कि आई.सी.टी के प्रयोग से शिक्षा में परिवर्तन आएगा। इससे बड़े व्यावसायिक फायदों की संभावनाएं तो हैं ही, एक अच्छा काम करने का मौका भी है। कल्पना की कोई सीमा नही होती।
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