र्मन हैसे के उपन्यास “सिद्धार्थ” के अनुसार, जब वयोवृद्ध सिद्धार्थ नदी के किनारे बैठ कर ध्यानमग्न हो सुनने लगे, तो उन्हें पानी के प्रवाह में “याचितों के विलाप, ज्ञानियों के हास, घृणा के रुदन और मरते हुओं की आह” के स्वर सुनाई दिए। “यह सब स्वर परस्पर बुने हुए, जकड़े हुए थे, सहस्र रूप में एक दूसरे के साथ लिपटे हुए। सारे स्वर, सारे ध्येय, सारी याचनाएँ, सारे क्षोभ, आनन्द, सारा पुण्य, पाप, सब मिल कर जैसे संसार का निर्माण कर रहे थे। ये सब घटनाओं की धारा की तरह, जीवन के संगीत की तरह थे।” जल धरती की धमनियों में बहते रक्त की तरह है, और नदियाँ, झीलें, वायुमंडल, जलस्तर और महासागर इस ग्रह के परिसंचरण तन्त्र की तरह। जल न होता तो जीवन कहाँ होता। न वन होते, न शेर, न इन्द्रधनुष, न घाटियाँ, न सरकारें होतीं न अर्थव्यवस्था। पानी ने ही हमारी भूमि की रूपरेखा खींची है, और उस पर गूढ जीवनजाल के रंग भरे हैं, एक सूक्ष्म सन्तुलन बरकरार रखते हुए।
इस ग्रह पर जीवन को वर्तमान रूप में बनाए रखना है तो हमें पानी की बहुत इज़्ज़त करनी चाहिए। कितनी ही प्राचीन संस्कृतियों में पानी को पवित्र वस्तु का दर्जा दिया गया है। उन लोगों ने इस की महत्ता जानी, जिसे हमारा उद्योगीकृत समाज नहीं जानता। हम आए दिन, बिना सोचे समझे, पानी को ऐसे अपवित्र करते हैं, जैसे कि ऐसा करना हमारे व्यवसाय का एक स्वीकृत मूल्य हो। पिछली दो-एक शताब्दियों में, जो कि पृथ्वी के इतिहास में एक क्षण भर था, मानव ने इस ग्रह के जलाशय को इस सीमा तक विषाक्त कर दिया है स्वच्छ जल के अभाव में करोड़ों लोगों का जीवन खतरे में पड़ गया है।
समस्याएँ यूँ तो जगज़ाहिर हैं, पर क्षति बेरोकटोक हो रही है और हमारे ग्रह पर संकट-स्थिति आना बस समय की ही बात है। उस से बुरा यह है कि सर पर आने वाली इस मुसीबत को टालने के लिए जो तरीके अपनाए जा रहे हैं, वे स्थिति को सुधारने की बजाय उसे बिगाड़ रहे हैं। उस से भी बुरा यह कि विश्व जल नीति पर एक तंगनज़र दृष्टिकोण का वर्चस्व है, और लोग इस त्रासदी से हासिल होने वाले असाधारण व्यावसायिक सुअवसर का लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं — एक ऐसा अतोषणीय बाज़ार जिस में इस बिना विकल्प के कार्य के लिए कोई नियम नहीं हैं, हैं भी तो बहुत थोड़े।
वर्ष 2000 में संपन्न संयुक्त राष्ट्र सहस्त्राब्दि शिखर सम्मेलन तथा 2002 में संपन्न सस्टेनेबल डेवेलपमेंट पर विश्व शिखर सम्मेलन में दुनिया में ऐसे लोगों की आनुपातिक संख्या, जिन तक शुद्ध पेयजल तथा स्वास्थ्य रक्षा की पर्याप्त पहुँच नहीं है, सन् 2015 तक आधी करने का लक्ष्य निर्धारित गया। वर्तमान में लगभग 110 करोड़ लोगों के पास पर्याप्त पीने योग्य पानी और तकरीबन 240 करोड़ लोगों के पास पर्याप्त स्वास्थ्य रक्षा की सुविधा उपलब्ध नहीं है। यह कैसे पूर्ण किया जा सकता है इस बात पर प्रचंड बहस हुई है।
दुनिया भर की महापालिकाओं और व्यापार, विकास तथा आर्थिक एजेंसियों की दलील है कि यह करिश्मा कर दिखा पाने के आर्थिक साधन जुटा पाने का माद्दा केवल ग़ैर सरकारी या निजी क्षेत्र के पास ही है। आर्थिक वैश्विकरण की प्रक्रिया में यह सामान्य विषय है और विकास के वाशिंगटन मतैक्य मॉडल (वाशिंगटन कंसेन्सस मॉडल आफ डेव्हलेपमेंट) के नाम से जाना जाता है। शीत युद्ध के उत्तर युग में पूँजी, सामग्री और सेवाओं के मुक्त व्यापार पर इसी ज़ोर ने वह दुनिया गढ़ी है जिस में हम रह रहे हैं। विश्व बैंक की संरचनागत समायोजन (स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट) पद्धति द्वारा लागू, अंतर्राष्ट्रीय मॉनीटरी फंड के विकास ॠणों द्वारा तय तथा विश्व व्यापार संघटन (डबल्यू.टी.ओ) के कानूनी ढांचे तले संरक्षित, व्यापार, निवेश तथा आर्थिक व्यवस्था में सरकार द्बारा दी जा रही नियमों में छूट से एक ऐसी पद्धति की स्थापना हो गई है जिसमें कार्पोरेट के हितों की संरक्षा के लिये मानवीय अधिकारों को कुचल दिया जाता है। जनता द्वारा चुनी राष्ट्रीय सरकारों के पास भी कई दफा व्यापार को नियंत्रित करने के अधिकार नहीं होते और सामान्यतः उन्हें अपने प्राकृतिक संसाधनों तथा समाजिक सेवाओं को नीलाम करने पर विवश होना पड़ता है। यह आम लोगों के लिये नुकसान का सबब ही नहीं जनतंत्र का सरसर अपमान है।
निजी क्षेत्र ने पानी में निहित व्यापार की संभावनाओं को बहुत पहले ही भांप लिया था। पानी का व्यवसाय दुनिया भर में सबसे तेजी से बढ़ने वाले व्यवसायों में से एक है जिसका अनुमानतः 100 अरब डॉलर का बाजार है। कई देशों में कार्यशील मुट्ठीभर विशाल कार्पोरेशनों को अब यह यह अधिकार और जिमंमेवारी सोंपी जा रही है कि वे वैश्विक शुद्ध जल संकट का हमारे लिये “हल” निकालें। हालांकि उनके विशाल तकनीकी समाधानों के लिये हमें काफी बड़ी सामाजिक, पारिस्थितिक तथा अर्थशास्त्रीय कीमत चुकानी पड़ रही है। बड़े बांधों के निर्माण से बेघर हुये लाखों लोगों से लेकर पेयजल के आसमान छूते दाम और इसे चुका पाने का सामर्थ्य न रखने वालों के लिये सीमा निर्धारण के सबूत हमारे सामने हैं।
जल समस्या के कार्पोरेट हलों का उन्हीं लोगों ने जमकर विरोध किया है जिन्हें कथित रूप से इनका लाभ मिलना था। 90 के दशक के उत्तरार्ध में तीन गैर सरकारी संस्थाओं को बनाया गया ताकी पानी पर बड़ी कंपनियों के अजंडे की सार्वजनिक छवि को नर्मी का मुलम्मा चढ़ा कर पेश किया जा सके, ये थे ग्लोबल वॉटर पार्टनरशिप, वर्ल्ड वॉटर काउंसिल तथा वर्ल्ड कमीशन ओन वॉटर। ये तीन समूह वैश्विक जल नीति निर्धारण के केंद्रबिंदु हैं और उनका विश्व बैंक, अंर्तराष्ट्रीय मॉनेटरी फंड और डबल्यू.टी.ओ से नज़दीकी संबंध है और परदे के पीछे कार्पोरेशनों को अपना असर डालने का अवसर देते हैं। इस अनियंत्रित “जल बाजार” से असीमित मुनाफे हैं। निजी क्षेत्र इस बाजार को किसी भी हालत में अपने शिकंजे से जाने नहीं देगा और पानी को “मानवाधिकार” की बजाय “आर्थिक सामग्री” की जगह बनाये रखने के लिये किसी भी हद तक जा सकता है।
शताब्दी सम्मेलन और विश्व जल आयोग के उद्देश्य व्यवासयिक जगत के एजेंडा में गुथे हैं और खुले बाजार के दोहन का रास्ता दिखाते हैं। 2015 के लक्ष्य भले ही काल्पनिक हो पर अत्याधुनिक तकनीकि और संसाधनो के प्रयोग दोहन एवं वितरण का ढाँचा बनाना समस्या का अल्पकालिक समाधान होगा। स्थायी समाधान वह होगा जो समाज का जल से रिश्ता जोड़े और हमारे द्वारा जलक्षरण और प्रदूषण पर रोक लगाये। लेकिन यह कैसे होगा?पिछले सालों में व्यवसायिक संस्थानों द्वारा जल संसाधन पर कब्ज़े का जमीनी आँदोलनों द्वारा प्रतिरोध तेजी से बढा है। पहले यह कुछ गैर सरकारी संगठनों द्वारा संचालित हुआ पर अब इसमे विभिन्न प्रकार के लोग शामिल हैं, वह भी जो हानिकारक जलनीतियों का शिकार हुए और वह भी जो दिल से मानते हैं कि पानी सबसे ऊँची बोली लगाने वाले की जागीर नहीं। यह जीने की जद्दोजहद की जँग है और बहुतों के लिए तो अस्तित्व का सवाल है।
बहुराष्ट्रीय जल निगमों के निकम्मे कामकाज और उन के द्वारा जल संसाधनों के लोभपूर्ण दुरुपयोग के दुष्प्रभावों को ध्यानपूर्वक दस्तावेज़बन्द कर के यह अभियान हानिकारक परियोजनाओं को समाप्त कराने और रोकने में सफल हुआ है। निजी क्षेत्र को इस ग्रह के जलभंडार पर निरंकुश अधिकार होना चाहिए, नीति निर्धारकों को इस आधिकारिक निष्कर्ष तक पहुँचने को टालने में भी इस अभियान को सफलता मिली है। यह विश्वव्याप्त संगठन आधुनिक सूचना तकनीक का चतुरता से प्रयोग कर के संचार के अप्रत्याशित स्तर तक पहुँचा है, जिस से विश्व के कई क्षेत्रों में इसे सफलता मिली है।
अभी तक यह अभियान लगभग पूर्ण रूप से निजीकरण और सामग्रीकरण से लड़ने पर ही केन्द्रित रहा है। इस अभियान का यह कार्य अत्यन्त महत्वपूर्ण है, पर इस के साथ साथ पानी की चौकीदारी पर शिक्षा होनी चाहिए और दीर्घकालीन उपायों के बारे में तकनीकी और व्यावहारिक जानकारी होनी चाहिए जिसे विभिन्न समुदाय प्रयोग कर सकें। इस बढ़ते संगठन की विश्व भर में सूचना-वितरण की क्षमता आश्चर्यजनक है और शायद भावी जल संकट से लड़ने का यही एक उपाय है।
इस तृणमूल संगठन में क्षमता है के वे लोगों को स्थानीय जल स्तर की अखण्डता को स्वयं सुधारने के सरल एवं सस्ते तरीके बताएँ और सिखाएँ। वर्षा के जल को कैसे जमा किया जाए, शुद्ध किया जाए, ज़मीन के जलाशय को बचाने के लिए स्थानीय नियमों को कैसे लागू किया जाए, अधिक कार्यकुशल सिंचाई तन्त्र कैसे बनाए जाएँ, अधिक जलसंचक कृषि व्यवहारों को कैसे प्रयोग किया जाए, पेय जल को सौर-किरणों द्वारा कैसे शुद्ध किया जाए, बच्चों को जलरक्षण का शिक्षण कैसे दिया जाए, इन सब चीज़ों के लिए यह अभियान एक सूचना का स्रोत बन सकता है। यदि लोग और समुदाय, सही सूचना स्रोतों से सशक्त हो कर, अपने आस पास के जल की स्थिति सुधारने का दायित्व अपने ऊपर लें, तो बड़ी कंपनियों, विकास संस्थाओं और केन्द्रीकृत सरकारों की मदद के बिना ही बहुत कुछ हासिल हो सकता है। स्थानीय जल संसाधनों से इस निजी सम्बन्ध के रहते, हम भविष्य में भी उन की चिन्ता करने पर मजबूर होंगे और उन का अपवित्रीकरण नहीं होने देंगे।
इस भावी संकट का हम केवल सरकार, निजी क्षेत्र, या गैर सरकारी संगठनों द्वारा मुकाबला नहीं कर सकते। फिर भी, अपने क्षतिग्रस्त जलाशयों पर अपना असर कम करने और उन को सुधारने के सरल और कारगर तरीके मूल स्तर पर लागू कर के और जल की सुरक्षा और संचय की संस्कृति के पुनरुदय को बढ़ावा देने से हम जल की कमी के कसाव को काफी कम कर सकते हैं।
लेखक: रायन केस, वाटर स्टीवर्ड्स नेटवर्क
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