सुनीलः डॉ. परवेज आज आप जाने माने डॉक्युमेंट्री फ़िल्म बनाने के रूप में जाने जाते हैं। सबसे पहले अपने बचपन और परिवार के बारे में कुछ बतायें।
परवेज़ः मैं अलीगढ़ में बड़ा हुआ जो कि दिल्ली से करीब 120 किमी दूर है, अलीगढ़ विश्वविद्यालय के लिये पहचाना जाने वाला शहर है। सामान्य मध्यम वर्ग का परिवार था। बचपन में पढ़ाई में मैं अच्छा नहीं था। कक्षा में मेरा अधिकतर समय कक्षा के बाहर खड़े रहने में निकलता था क्योंकि सजा बहुत मिलती थी, और कक्षा के भीतर मैं अन्य विद्यार्थियों के पीछे छुपने की कोशिश करता रहता ताकि शिक्षकों के सामने न पड़ जाउं, खासकर गणित तथा इतिहास के शिक्षकों के सामने।
मेरे पिता अलीगढ़ विश्वविद्यलय में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर थे, अब रिटायर हो चुके हैं, और माँ तो हमेशा से गृहणी ही रही हैं। दोनों से ही मुझे, चाहे मैं कुछ भी करूँ, सदा स्वीकृति ही मिली। उन्होंने कभी मुझ पर जोर नहीं डाला कि मैं अधिक पढ़ूँ, वगैरह। छठी से नौंवीं कक्षा तक हर वर्ष गणित में मुझे स्पलीमैंट्री इम्तहान देना पड़ता था, तब भी उन्होंने कभी मुझ पर जोर नहीं डाला कि मैं अपना जीवन बदलूँ, मुझे उनसे सहारा ही मिला। इसका अर्थ यह होता कि माँ मेरी बहनों और छोटे भाई के साथ गर्मियों की छुट्टियों में कहीं जाती, और मैं पिता के साथ घर में रहता, पिता जी मुझे गणित पढ़ाते ताकि मैं सप्लीमैंट्री इम्तहान पास कर सकूँ। पर उन्होंने कभी मुझसे यह नहीं कहा कि खेलों में हिस्सा न लो, वगैरह।
मेरे पिता, अन्य बहुत सी बातों में असमान्य व्यक्ति रहे हैं। जैसे कि हमें घर में कभी धर्म की बातें नहीं बताई गईं। एक बार की बात याद है कि विद्यालय में सर्वेक्षण हो रहा था, शायद जनगणना की बात थी, और एक शिक्षक ने छात्रों को अपने धर्मों के हिसाब से हाथ उठाने के लिये कहा। मैं तब छह या सात साल का था। मैंने किसी भी धर्म के लिए हाथ ऊपर नहीं उठाया क्योंकि मुझे मालूम ही नहीं था कि मेरा धर्म क्या था। जब कुल छात्रों के और विभिन्न धर्मों के नम्बर आपस में नहीं मिले, तो उन्होंने दोबारा से वही सवाल किया। तीन बार गिनती की और तब मुझे उस शिक्षक ने पकड़ लिया, और गणना करने वालों को बोले कि मैं ही वह बेवकूफ हूँ जिसकी वजह से गलती हो रही थी और मुझसे चिल्ला कर बोले कि “…आप मुसलमान हो, आप को मालूम नहीं?” उस दिन शाम को घर वापस जा कर मैंनें और मुझसे एक साल छोटी बहन ने, पिता जी से पूछा कि यह मुसलमान वाली क्या बात है? वह बोले कि मेरे शिक्षक ने ठीक नहीं कहा था और सच में हमारा कोई धर्म नहीं है, बोले, जब आप लोग व्यस्क होगे तो आपको जो धर्म अच्छा लगे वही ले लेना। अलीगढ़ जैसे छोटे से शहर में यह बहुत बड़ी बात थी और मेरे कई मित्र मुझे छेड़ते थे कि मैं “नास्तिक” या “कम्यूनिस्ट” हूँ, पर मुझे इस बात पर गर्व होता था कि मैं अपना धर्म खुद चुन सकता हूँ।
सुनीलः अगर आप पढ़ाई में कमज़ोर थे और पढ़ने लिखने में मन नहीं लगता था तो आपने मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने की कैसे सोची और दाखिला मिला कैसे?
परवेज़ः हाईस्कूल में मेरी सेकंड डिविजन आई थी, पर साथ में मेरे पास खेलों के बहुत सारे सर्टीफिकेट थे। मेरी एक बड़ी कज़न थी, उन दिनों में उसका मुझ पर उसका बहुत प्रभाव था। वह जीवविज्ञान पढ़ाती थीं, और शाम को घर के काम करते करते वह मुझे पढ़ाती थीं। जैसे कि रसोई में चपाती बनाते बनाते, वह मुझसे जेनेटिक्स या एवोल्यूशन की बातें करती, और मैं रसोई के दरवाजे पर खड़ा हो कर ध्यान से सुनता। मेरी रुचि को देख कर वह अक्सर कहती, “आपको जीवविज्ञान अच्छा लगता है, आप परिवार के पहले डाक्टर बन सकते हो।”
जब हाई स्कूल के परिणाम निकले उन्हीं दिनों में मेरी उस बहन का दुघर्टना में देहांत हो गया। उसको सिर में चोट लगी थी और वह कोमा में चली गईं थीं। उसी रात उन्हें मृत घोषित कर दिया गया। मुझे लगा कि डाक्टरों ने उनका ठीक से उपचार नहीं किया और शायद अगर उसे जल्दी ठीक उपचार मिल जाता तो वह बच जातीं। उनकी मौत का मुझ पर बहुत असर पड़ा। कुछ महीने बाद जब मैं ग्याहरवीं कक्षा में दाखिला लेने गया तो मैंने जीवविज्ञान का विषय चुना। पिता जी को बहुत अच्ररज हुआ। पूछने लगे कि क्या मैंने सोच समझ कर यह निर्णय लिया था? हाँ, मैंने कहा। हालाँकि नम्बर कम थे पर साथ में खेल के सार्टिफिकेट होने की वजह से खिलाड़ी कोटे में मुझे दाखिला मिल गया।
उस वर्ष मैंने सब खेलकूद बंद कर दिया। साहित्यिक कार्यक्रम, बहस आदि में हिस्सा लेने लगा और ग्यारहवीं और बारहवीं के इम्तहानों में फर्स्ट डिविजन लाया। फ़िर मैंने मेडिकल कॉलिज में दाखिला लेने की तैयारी शुरु कर दी। बिल्कुल किताबी कीड़ा बन गया। माँ और पिता चिंतित हो गये। कई बार रात को पिता जी मेरे कमरे में आते और कहते कि अब पढ़ना बस करो, सो जाओ, पर उनके जाने के बाद में फ़िर से बत्ती जला लेता और पढ़ता रहता। मेडिकल कालिज में मुझे जब दाखिला मिला तो सभी लोग चकित रह गये।
सुनीलः अच्छा, यह बतायें कि आपने मनोरोग चिकित्सक बनने की क्यों सोची और फ़िर अचानक चिकित्सक से फ़िल्म निर्देशक कैसे बन गये?
परवेज़ः पहले सोचता था कि मैं बच्चों का डाक्टर बनूँगा, पर जब मेडिकल कालेज के आखिरी साल में मेरी पोस्टिंग मनोरोग विभाग में हुई तो चिकित्सा क्षेत्र का नया रूप देखा। अन्य सभी विभागों में तो क्लिनिकल या सर्जिकल इलाज की बात होती थी। ये सब शारीरिक स्तर तक ही सीमित थे, जबकि मनोरोग चिकित्सा विचारों की दुनिया की बात करती थी, कि कैसे विचारों का असर भी बीमारी बनाने और उसका इलाज करने पर होता है, यह बात मुझे मुझे अच्छी लगा।
मानसिक रोग में विशेषज्ञता हासिल करने के बाद पहले मैंने राँची के मनोरोग अस्पताल में काम करना शुरु किया। वहाँ मनोरोग पीड़ित लोगों का हाल देखा देखा तो विश्वास नहीं हुआ। यह भारत की सबसे प्रमुख मनोरोग संस्था मानी जाती थी और वहाँ रोगियों का जीवन इस तरह का था जिसमें कैदखाने की मानसिकता अपनी कठोर निर्ममता के साथ दिखती थी। मुझे धीरे धीरे समझ आने लगा कि मानसिक रोगों के लिए क्लिनिक की चाहरदिवारी में बंद करके केवल दवा देने के अलावा भी और कुछ किया जा सकता है। मुझे लगा कि मानसिक रोगों के बारे में बात करने की, दुनिया को इसके बारे में बताने की बहुत आवश्यकता है…कि इसमें समय लगेगा पर इससे मरीज़ों को, परिवार वालों को और अन्य उपचार कर्मियों को सहायता मिलेगी।
पर मुझे नहीं मालूम था कि यह कैसे किया जाये और मैं स्वयं क्या कर सकता हूँ? मैंने कुछ मरीज़ों की बीमारी के बारे में उनकी “जीवनकथा” लिखना शुरु कर दिया। यह कहानियाँ लिखना उस वातावरण में होने वाले मेरे अपने मानसिक तनाव को भी कम करता था। एक बार एक जीवनकथा को लिख कर मैंने उसे अंग्रेजी पत्रिका इलस्ट्रेटेड वीक्ली आफ इँडिया को भेजा तो उस पत्रिका के सम्पादक ने मुझे उत्तर में कहा कि वह उस तरह की अन्य कहानियाँ भी छापना चाहेंगे। उन्हीं दिनों में मैंने राँची मानसिक रोग अस्पताल को छोड़ने का निश्चय किया क्योंकि मुझे वहाँ रहना बहुत कठिन लग रहा था। लगता था कि वृहद समाज से बिल्कुल कट गया हूँ।
मैंने दिल्ली जाने का फैसला किया। मेरी छोटी बहन सेहबा तब दिल्ली में मास कम्यूनिकेशन का कोई कोर्स कर रही थी और मैं उसके ही मित्रों के साथ घूमने लगा। एक दिन किसी ने कहा कि लोग दूरदर्शन के लिए विज्ञान के विषय पर होने वाले टर्निंग प्वाईंट नामक कार्यक्रम के लिए वैज्ञानिक विषयों पर पटकथा लेखक की तलाश कर रहे हैं तो मैं उस कार्यक्रम के निर्देशक से मिलने गया। उसने मुझसे पूछा कि क्या मैं कार्यक्रम की पटकथा लिख सकता हूँ तो मैंनें हाँ कर दी। फ़िर और लोगों से बात कर, समझ कर, कि पटकथा कैसे लिखी जाती है मैंने “आनुवंशिकता और आनुवंशिकी” (Heredity and Genetics) विषय पर पटकथा लिख कर उन्हें दी।
उस निर्देशक को वह पटकथा बहुत पसंद आई। उसके आधार पर किसी ने एक फ़िल्म बनाई, पर मुझे वह फ़िल्म अच्छी नहीं लगी और मैंने ज़ोर डाला कि उसका दुबारा संपादन किया जाये। बाद में उस निर्देशक की बदली हो गयी और उन्होंने मुझे बुला कर कहा कि मैं उनके लिए विज्ञान संबधी अन्य पटकथाएँ लिखूँ। तब मुझे लगने लगा कि मैं फ़िल्म बनाने के क्षेत्र में जा सकता हूँ और साथ साथ अपना मनोचिकित्सक का काम भी कर सकता हूँ। इससे मुझे अपने अन्य शौक जैसे फोटोग्राफी, संगीत आदि भी पूरे करने का मौका मिलेगा।
तकरीबन एक साल बाद मैंने एक अन्य पटकथा लिखी पर मैंने उनसे कहा कि मैं स्वयं ही इस फ़िल्म का निर्देशन करना चाहता हूँ। वे कुछ हिचकिचाए पर मैंने उन्हें अपने नाटक, संगीत, फोटोग्राफी आदि शौक के बारे में बताया तो वह फ़िर मान गये। वह मेरी पहली फ़िल्म थी, चार मिनट की थी और विषय था “फोबिया” यानि डर।
निर्देशक श्री के पी मधु ने मुझे उस फ़िल्म का संपादन भी करने दिया। फ़िल्म संपादन कैसे करते हैं, यह उन्होंने मुझे सिखाया। बाद में हम दोनों मित्र बन गये और उन्होंने बताया कि वह स्वयं भी विज्ञान के स्नातक थे और जब फ़िल्म जगत में आये तो उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ी थी।
यह निर्णय कि मैं मनोरोग चिकित्सा का क्षेत्र छोड़ दूँ और अपना सारा समय फ़िल्म बनाने को दूँ, काफी समय बाद आया। एक बार अपने अंकल से बात कर रहा था तो वह बोले कि मैं अगर अपना समय अपने फिल्म बनाने के शौक को दे दूँ और मनोरोग चिकित्सा को शौक बना लूं तो शायद अधिक खुश रह सकता हूँ। उनकी इस बात पर मैंने बहुत सोचा और तब यह निर्णय लिया। 31 जनवरी 1995 को मैंने अस्पताल का काम छोड़ दिया।
सुनीलः यानि कि अब आप मनोरोग चिकित्सा का काम नहीं करते। अच्छा अब कुछ फ़िल्म जगत में अपनी सफलता के बारे में बतायें।
परवेज़ः मुझे सफलता मिली जब मैंने एक स्वतंत्र फ़िल्म बनाई “बिटवीन द लाइंस”। यह फ़िल्म भारत आने वाले बांग्लादेश के शरणार्थियों के बारे में थी। इस फ़िल्म को नयी दिल्ली वीडियो फ़िल्म फेस्टीवल में “सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म” का पुरस्कार भी मिला। फ़िल्म स्विटज़रलैंड में मिटिल फेस्टिवल में भी भेजी गयी जहाँ यह पुरस्कार नामांकन तक पहुँची। इस फ़िल्म को अन्य कई फेस्टिवल में भी दिखाया गया।
तब मुझमें आत्मविश्वास आ गया कि हाँ में अपनी फ़िल्मों से अपनी बात कह सकता हूँ। अब मैं सचमुच अपने विचारों पर फ़िल्म बना सकता हूँ। तब से बहुत सी फ़िल्में बनाई हैं, कुछ वर्ष पहले मैंने मानसिक रोगों पर भी फ़िल्में बनाई हैं। बहुत से फेस्टिवल में मेरी फ़िल्में गयीं हैं, कुछ पुरस्कार भी मिले हैं।
सुनीलः क्या मनोरोग चिकित्सा का अनुभव फिल्म निर्माण में काम आता है?
परवेज़ः अच्छे फिल्मकार और कथाकार दोनों में दर्शक के मन की बढ़िया समझ होना ज़रूरी है। मेरा मानना है कि मनोविज्ञान की समझ और अनुभव ने मुझे यह जानने में मदद की है कि मैं अपनी फिल्म में कौन सी बात किस प्रकार कहूं ताकि दर्शक मेरी भावनायें पूर्णतः समझ सकें। अपने दर्शकों की सही पहचान पर ही फ़िल्म का बजट, समय और निर्माण योजना निर्भर रहती है। जहाँ तक फिल्म के विषय का सवाल है मैं हमेशा हर चीज़ को मानवीय दृष्टकोण से देखता हूँ, विषयों में लोग और उनके नज़रिये की तलाश रहती है। क्योंकि मेरा यकीन है कि पृथ्वी पर रहने वाली हर चीज़ जीवन से जुड़ी है।
सुनीलः वृत्तचित्र निर्माण में नई तकनीक से क्या निर्माण के काम कुछ आसान हुये हैं?
परवेज़ः अच्छी फिल्म बनाने के लिये कोई शार्टकट नहीं हैं। मौलिक विचार होना ज़रूरी है। मुझे पता होना चाहिये कि क्या कहना है, क्यों और किसे कहना है। इसी हिस्से पर अब भी सबसे ज़्यादा समय लगता है। मेरे काम में कमोबेश सस्ती और आसान तकनाजी का असर ज्यादा होता है क्योंकि मैं इनमें प्रयोग कर सकता हूं। इनसे मुझे अपने किरदारों से समझ बढ़ाने और नज़दीक जाने में भी आसानी होती है क्योंकि ये बड़े पैरों वाले ट्राईपॉड पर सवार भारी भरकम काले कैमरों जैसे डरावने नहीं होते। चुंकि मैंने फिल्म निर्माण में कोई औपचारिक शिक्षा ग्रहण नहीं की है अतः प्रयोग करता रहता हूँ।
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